

धरमजयगढ़। धरमजयगढ़ थाना क्षेत्र का आदिवासी ग्राम भालूपखना इन दिनों भय, असहायता और पत्थरों के गिरते कहर के साए में सिसक रहा है। यहां के शांत जीवन में धनबादा कंपनी द्वारा किए जा रहे बार-बार के धमाके अब मौत की दस्तक बन चुके हैं। विस्फोटों की हर गूंज मानो ग्रामीणों के हृदय को चीरती हुई निकलती है।

बता दें,हाल ही में गांववासियों के बताए अनुसार बीते 26 जून की शाम, जब सूरज ढलने की तैयारी में था, तभी समय था लगभग 4:30 से 5 बजे के बीच, अचानक एक ऐसा भयानक धमाका हुआ कि धरती कांप उठी और आसमान से मानो पत्थरों की बारिश होने लगी। बड़े-बड़े पत्थर घरों की छतों, खप्पर, दीवारों पर आकर गिरे, जिससे कई मकानों में दरारें पड़ गईं, कोराई और म्यांर चकनाचूर हो गईं। गांव भर में हाहाकार मच गया — बच्चे डर से कांपते हुए कोनों में सिमट गए, स्त्रियाँ विलाप करने लगीं और बुज़ुर्ग असहाय आँखों से सिर्फ आसमान की ओर ताकते रहे। घटनाक्रम को लेकर एक महिला ने रूवांसे भरे लड़खड़ाते हुए शब्दों में कहा, सहाब जब विस्फोट हुआ उस समय मैं अपनी बच्ची को घर में सुलाई थी,तब अचानक बड़ा सा पत्थर घर के अंदर मेरे बच्ची के बगल में धड़ाम से गिरा, और यह दृश्य देखकर मेरे सांस फुल रहे थे, आगे रोती हुई बताई,कि गनीमत रहा सहाब मेरी बच्ची को नहीं लगा, नहीं तो आज मैं भी जिंदा नहीं रहती। आगे उन्होंने कहा कंपनी हमारा जीना दुश्वार कर दिया है।


वहीं अन्य ग्रामीणों का कहना है, यह कोई पहली घटना नहीं। लंबे समय से धनबादा कंपनी द्वारा लगातार हो रहे विस्फोट उनके जीवन को नष्ट कर रहे हैं। “अब ऐसा लगता है कि यह कंपनी हमारी जान लेकर ही मानेगी”, यह पीड़ा वहां के हर निवासी के स्वर में गूंज रही है। आगे उन्होंने बताया कि बार-बार प्रशासन, कलेक्टर और एसपी तक गुहार लगाई गई, पर ग्रामीणों की आवेदन निवेदन पत्र फाइलों में दबी रह गईं और इधर धमाकों की आवाज़ें पहले से और तीखी होती गईं। इस बार की त्रासदी के बाद, कंपनी के कुछ प्रतिनिधि गांव पहुंचे और जिनके घरों को नुकसान हुआ, उन्हें महज दो से पांच हजार रुपये थमाकर चुप रहने की सलाह दे डाली। यही नहीं, साफ़ शब्दों में कहा गया — “कहीं कुछ मत कहना, वरना…” यह संवाद केवल रिश्वत नहीं, बल्कि धमकी का प्रत्यक्ष प्रमाण था।

और वहीं गांव के कमलसाय नामक एक किसान, जिनकी ज़मीन कभी हरियाली से लहलहाती थी, अब विस्फोटों की ज़द में है, व्यथित स्वर में कहते हैं — “हमने ज़मीन गंवाई, अब जीवन भी जा रहा है। यदि अगली बार पत्थर किसी बच्चे पर गिरा तो किसके दरवाज़े पर इंसाफ माँगेंगे?” ग्रामीणों ने यह भी आरोप लगाया है कि कंपनी ने भूमि अधिग्रहण से अधिक क्षेत्र पर अवैध कब्जा कर लिया है। मिट्टी, पत्थर का बेतरतीब डंपिंग, शेड निर्माण जैसे कार्य पर्यावरणीय नियमों की खुली धज्जियाँ उड़ा रहे हैं। यह न केवल प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ रहा है, बल्कि गांववासियों के जीवन, अधिकार और अस्तित्व पर सीधा प्रहार है। यह सब 7.5 मेगावाट बिजली उत्पादन के लक्ष्य की आड़ में हो रहा है, जिसकी चकाचौंध के पीछे छुपी है आदिवासियों की सिसकती हुई ज़िंदगी।
सवाल यह है कि — क्या ऐसा ‘विकास’ न्यायसंगत है जो मूल निवासियों की ज़मीन, घर और जीवन निगल जाए? अब देखना यह है, कि आखिर शासन-प्रशासन नींद से जागेगा या फिर इसी तरह अनदेखा कर जायेगा। बहरहाल ग्रामीणों द्वारा हर दरवाजे खटखटाने पर भी शासन प्रशासन से लेकर स्थानीय जनप्रतिनिधि भी मौन साधना में लीन हो गए हैं? कहीं कंपनी प्रबंधन से गहरी लगाव तो नहीं?